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विद्रोही लेखिका इस्मत चुगताई

Tarkash
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जंगे-आज़ादी के दौरान जब साहित्य में स्वतंत्रता सम्बन्धी लेखों पर कलम रवां थी उस समय इस्मत चुगताई ने पहले घर में ही धर्म-मज़हब, झूठी इज्ज़त के नाम पर बंधुआ बनाई गई औरत की आज़ादी पर कलम चलाई और उसके हक की बात लिखी. उन्होंने उर्दू उपन्यासों में रिवायत (परम्परावाद) से अलग हटकर वह लिखा जिसे सुनने की ताब ज़माने को नहीं थी और हुआ भी वही. इस्मत के किरदार जब अपने जिस्मानी जज्बों और समलैंगिक रिश्तों के साथ उभरे तो हंगामा बरपा हो गया. हर तरफ उनकी मुखालफत हुई और उन्हें फहश (अश्लील) लेखिकाओं की सफ (लाइन) में खड़ा कर दिया गया. मगर वे सवाल जो उन्होंने अपने उपन्यासों में उठाये, उन पर ग़ौर नहीं किया गया और न ही उन कारणों पर नज़र दौड़ाई गई जो उन्होंने परत-दर-परत पेश किये.
21 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के जिला बदायूं के एक मुस्लिम परम्परावादी परिवार में जन्मीं इस्मत चुगताई शुरू से बगावती तेवर की मालिक रहीं. उन्होंने रिवायत से अलग हटकर उर्दू साहित्य में क़दम बढ़ाया औए लफ्ज़-दर-लफ्ज़ माहौल में मौजूद बुराइयों को कलम से उभारा. उनके लेखन पर नाक-भौं सिकुड़े, विरोध हुआ, आवाजें बुलंद हुईं, मगर उन्होंने रिवायत के मुखालिफ ही लिखा और इतना लिखा कि झूठी इज्ज़त का लबादा ओढ़े नवाबी घराने, बड़े परिवार बेपर्दा हो गये. इन घरानों में कुंवारी माँ बनती लड़कियों और जिस्मानी जज्बात को दबाने पर मजबूर औरतों की घुटन कोउन्होंने पेश किया.
फायर, मृत्युदंड जैसी फिल्मों के किरदार तो हमें परदे पर आज नज़र आते हैं, लेकिन इस्मत ने उन्हें कहीं पहले गढ़कर अपने उपन्यासों में पेश कर दिया था. समलैंगिक रिश्तों पर नहीं, उसके कारणों पर उर्दू अदब में पहली बार इस्मत ने ही लिखा. यूँ तो उन्होंने जिद्दी, लिहाफ, सौदाई, मासूमा, एक क़तरा खून जैसे कितने ही उपन्यास, अफसाने लिखे, मगर सबसे ज्यादा मशहूर और जिसकी मुखालफत हुई वह टेढ़ी लकीर है. 1944 में मंज़र आम पर आया टेढ़ी लकीर ऐसे परिवारों पर व्यंग्य है जो अपने बच्चों की परवरिश में कोताही बरतते हैं और नतीजे में उनके बच्चे प्यार को तरसते, अकेलेपन को झेलते एक ऐसी दुनिया में चले जाते हैं जहाँ जिस्म की ख्वाहिश ही सब कुछ है. इस्मत ने टेढ़ी लकीर के ज़रिये समलैंगिक रिश्तों को एक रोग साबित करके उसके कारणों पर नज़र डालने पर मजबूर किया. लेकिन तब के लोगों ने उनकी बातों को सतही लेकर उनका विरोध किया, जबकि हकीक़त यह है कि उन्होंने अपने किरदार शमन उर्फ़ शमशाद के ज़रिये यह बताया कि एक बच्चे को अकेलापन, प्यार से महरूम और उसको नज़रअंदाज़ करना किस तरह एक बीमारी का रूप ले लेता है. उन्होंने इसे बीमारी बताकर नफरत के बदले प्यार, अपनापन निबाहने की सीख टेढ़ी लकीर में दी. वह कहती भी हैं, ‘कुछ लोगों ने यह भी समझा कि टेढ़ी लकीर मेरी आपबीती है. मुझे खुद आपबीती लगती है और समाज में मौजूद हर औरत को अपनी ही आपबीती लगेगी, क्योंकि इसके किरदार शमन में आठ-दस लड़कियों के किरदारों को जमा कर दिया गया है और उन्हीं में से एक मैं भी हूँ.’
आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी तहज़ीब को अपनाते हमारे बच्चे अपना चरित्र, भविष्य बर्बाद कर रहे हैं और इसके ज़िम्मेदार हमारा समाज, परिवार हैं. औरत-मर्द के लिए एक ही बात को लेकर दोहरा रवैया अपनाना भी समाज की सेहत के लिए ख़राब साबित होता है. ऐसा उन्होंने अपने किरदार शमन और उस जैसे कितने किरदारों के ज़रिये उभारा.
सिर्फ लेखन ही नहीं, असल ज़िन्दगी में भी उन्होंने नाइंसाफी का विरोध किया और कामयाब भी रहीं. चाहे वह बचपन में घोड़े पर बैठने को लेकर लड़की-लड़के में फर्क की बात हो या फिर कच्ची उम्र में उनकी शादी का किस्सा.
रोग को बेनकाब करके उसके इलाज की तरफ ध्यान ले जाना इस्मत का मकसद है, न कि चटखारे और रस लेकर अपने उपन्यासों को पढ़वाना, क्योंकि ज़ख्म जितनी हद तक सड़ जाएगा, सफाई करके इलाज भी उसी की हद तक उतरकर करना पड़ेगा. अफ़सोस, आज हमारे आसपास इस्मत की उठाईं उस वक़्त की समस्याएं सिर चढ़कर बोल रहीं हैं, मगर हमने न तब उनकी बात समझी और न आज उस साहित्य को उठाकर देखते हैं. उन लेखकों को भी भुला दिया जो अगर न होते तो साहित्य में ऐसी समस्याएं भी न उठ पातीं.

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