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पिछली बार जब अभिनव बिन्द्रा वर्ल्ड शूटिंग चैम्पियनशिप में सोना जीतकर लौटे थे तो केन्द्र और राज्य सरकारों सहित तमाम संगठनों ने उनको बड़ी-बड़ी धनराशियाँ पुरस्कार में देकर खुद को बड़ा जताने की कोशिश की थी. इसकी एक वजह यह भी थी कि अभिनव बिन्द्रा ने कहा था कि उन्होंने अपने बूते इस ख़िताब को जीता है और सरकार व खेल संघ का इसमें कोई योगदान नहीं है. खैर, इस बार भी कुछ ऐसा ही रहा. 19वें कॉमनवेल्थ खेलों में ग़रीब परिवारों से खिलाड़ी कर्ज़ लेकर, घर बेचकर और कितनी मुश्किलात के बाद पहुँचे और जीत हासिल की. अब इन्हें भी पुरस्कार के बाद न सिर्फ़ केन्द्र सरकार, बल्कि राज्य सरकारें भी लाखों के इनामों से नवाज़ रही हैं. दूसरी ओर खेल गाँव पर करोड़ों रुपयों का खर्च और धाँधली हुई. इसके बावजूद आख़िरी वक़्त तक खेल गाँव आलीशान शहर सरीखा तैयार हो गया. मतलब यह कि अपनी नाक का सवाल समझते हुए खेल गाँव तैयार कराना केन्द्र और राज्य सरकार के लिए एक चुनौती था, जिसे ऐन वक़्त तक पूरा कर ही लिया गया. मगर क्या यही तत्परता उन जगहों पर दिखाने की ज़्यादा ज़रूरत नहीं थी जहाँ कुदरत ने कहर बरपाया. जहाँ लोग दाने-दाने को मोहताज़ हो गये. ठीक जाड़ों के शुरू होने से पहले लेह में प्राकृतिक आपदा, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश में बरसात का कहर. लोग बेघर-बार हो गये. पेड़ घर हो गया, पानी घर का आँगन. मगर आदतन सरकारी सेवाएँ देर से और हमेशा की तरह कम पहुँचीं. केन्द्र सरकार राज्यों में हुई तबाही का ब्योरा माँगती रही और राज्य सरकारें केन्द्र मदद नहीं कर रहा, कहकर दामन बचाती रहीं. लोगों की तबाही का आकलन एक तो किया ही कम गया और जो मुआवज़ा भी तय हुआ वह सही वक़्त पर और पूरा पहुँच जाये, इसमें भी सन्देह है. सन 2000 में भुज और उसके आसपास जो भूकम्प आया था उसमें भी यही हुआ था. जिसको 5 हज़ार मुआवज़ा देना था उसे 500 रुपये देकर भरपाई कर दी गयी. भोपाल गैस काण्ड में मुआवज़ा राशि अभी तक इस पेंच में फसी है कि गैस रिसाव से कोई प्रभावित हुआ भी है या नहीं और हुआ है तो कितना. 1984 के सिख दंगों में आज भी इंसाफ और मुआवज़ा नहीं मिल सका है. यह सवाल मेरे ज़हन में लगातार कौंध रहा है कि खेल गाँव पर करोड़ों रुपये खर्च करना अगर देश की इज़्ज़त का सवाल था तो देश के लाखों लोगों के आंसू पोंछकर रोज़ी-रोटी देना, छत मुहैया कराना क्या शासन का फ़र्ज़ नहीं है. लाखों रुपये पुरस्कारों के नाम पर खिलाड़ियों को बांटे जा सकते हैं तो आपदा पीड़ितों को मुआवज़ा देने में इतनी टालमटोल क्यों?
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