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फ्रेंच लेखिका सीमोन द बुवा ने अपनी किताब ‘द सेकेण्ड सेक्स’ में औरत की बदहाली के बारे में लिखा है कि ‘औरत होती नहीं, बना दी जाती है.’ सीमोन ने जिस औरत का ज़िक्र किया था वह औरत अशिक्षित, बदहाल और अपने अधिकारों से वंचित, अनभिज्ञ, मर्द की ज़्यादती का शिकार थी. मगर आज इस बात से इतर एक नयी औरत उभर रही है. उसे किसी दुशासन द्वारा निर्वस्त्र करने की ज़रूरत नहीं. वह तो खुद ही इतने बदन उघाडू कपड़े लपेटे है. उसे किसी कृष्ण की भी ज़रूरत नहीं. अब ज़ोर-ज़बरदस्ती का नहीं, समझौते का ज़माना है. यह भविष्य की वह औरत है जिसे कर्तव्य ज्ञात नहीं, पर अधिकार बखूबी मालूम हैं. आईआईटी रुड़की में बतौर प्रतियोगिता लड़के-लड़कियों का एक-दूसरे को बाँहों में जकड़कर होठों से होठों पर लिपिस्टिक लगाना मध्यमवर्गीय लोगों के लिए हैरत की बात होगी, वरना ऊँची दीवारों के पीछे उच्च विचारों के नाम पर वाइफ स्वैपिंग, रेव पार्टियाँ, खुले सेक्स सम्बन्ध, क्या नहीं होता. यह नयी पीढ़ी, जो गुर्बत से दूर ऐशो-आराम में पानी की तरह रुपये बहाकर जीती है उसका आदर्श सीता, कस्तूरबा, किरण बेदी नहीं, बच्चन और खान परिवार की वह क़ाबिल बहुएँ हैं जिन्हें शादी के बाद भी न तो कम कपड़े पहनने से गुरेज़ है और न बढ़ती उम्र, रिश्तों का लिहाज़.मगर हमें यह भी याद रखना चाहिए कि उनका समाज एक ऐसा बाज़ार है जहाँ ख़ूबसूरती, ग्लैमर दिखाकर रोज़ी बनाये रखना उनका पेशा है. पश्चिमी संस्कृति को देखें तो भी अन्धे होकर वहाँ का रहन-सहन अपनाना बेजा है. शायद इसीलिए कुछ दिन पहले ऑस्ट्रेलिया के एक खिलाड़ी ने भारतीय दर्शकों को बन्दर कहा था. बहुत बुरा लगा था सुनकर, मगर आज इसे कुछ यूँ समझा जाये तो कुछ ग़लत नहीं लगेगा. आखिर यह नकलची बन्दर जैसा ही तो है कि नये के नाम पर वह अपनाया जा रहा है जिसका न तो विकास से कुछ लेना-देना है और जो हिन्दुस्तानी तहज़ीब के लिए भी घातक है. अधिकार के नाम पर औरत को बराबर की इज़्ज़त, हक़ देने की बात थी, मगर यहाँ तो बराबरी के नाम पर औरत को मर्द की तरह कपड़े पहनना, शराब, स्मोकिंग, रातों को घूमना जायज़ ठहराया जा रहा है.
नयापन लाना है तो इस बात में कि हर औरत, मर्द के बराबर शिक्षित हो. उसे बाहर भी उतनी ही इज़्ज़त से देखा जाये जितना सम्मान पुरुष को मिलता है. मर्द-औरत में समानता सम्मान, इन्सान बतौर हो, न कि पुरुषों जैसे रंग-ढंग अपनाकर एक समान सफ़ में खड़े होने की बात की जाये. और इस लिहाज़ से देखा जाये तो मुझे नहीं लगता कि औरत आज भी आज़ाद है या उसे बराबर का सम्मान, आज़ादी प्राप्त है. आज़ादी इस तरह कि वह जब बाहर निकले तो कम-से-कम उसे अपनी अस्मत को लेकर असुरक्षा न हो. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि आज जो कॉन्वेंट की शिक्षा मिल रही है उसमें धर्म और भारतीय तहज़ीब का कोई दखल नहीं है. हमारे यहाँ 25 की उम्र, यानि ब्रह्मचर्य के पालन के बाद गृहस्थ आश्रम अथवा सेक्स की अनुमति है, जबकि विदेशों में स्कूली शिक्षा के दौरान ही सैकड़ों लड़कियां बिनब्याही माँ बन जाती हैं. हालाँकि विदेशों में भी इस स्थिति को सम्मान की निगाह से नहीं देखा जाता.
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