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कमज़ोर माली हालत और विकलांगता आरक्षण दिए जाने के सही आधार हैं लेकिन यह भारत में ही मुमकिन है कि यहाँ जाति को किसी के कमज़ोर होने का प्रमाण मान लिया गया और अफ़सोस जनक बात तो यह है कि इसे भी राजनीति का हथकण्डा बना कर हर दस साल पर आरक्षण की म्याद बढ़ायी जाती रही जबकि जातिगत आरक्षण सिर्फ़ दस वर्ष के लिए ही था। क्या यह देश के उन करोड़ों युवाओं के साथ अन्याय नहीं कि सिर्फ़ सवर्ण होने के कारण उन्हें न नौकरी में आरक्षण मिलता है न तालीम में कोई रियायत! क्या यह बौद्धिक आधार पर दलितों को और पिछड़ा बनाना नहीं है कि उन्हें मैरिट में भी और अवसरों में भी ज़्यादा सहूलियतें दी जाती हैं और क्या यह आर्थिक तौर पर ग़रीबों को और बदहाल बनाना नहीं है कि उन्हे सहूलियत के नाम पर इसलिए कुछ नहीं दिया जाता कि उनपर सवर्ण होने का मुलम्मा चढ़ा है। जो देश कुछ राजनेताओं की मेहरबानी से धर्म-मज़हब के आधार पर दो फाड़ होता रहा है वही मुल्क जातिगत आधार पर भी बँटकर देश के सामने नयी चुनौती पेश कर दे तो भी कोई अचरज नहीं होगा और यह भी कुछ नेताओं और बहिन जीओं की वोट की राजनीति के कारण ही होगा।
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